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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • Acharya Vidyasagar Ji has attained Samadhi. This Samadhi is a vessel of his lifelong penance, a celebration of death. Although he is not with us in this body, the ideals he set, the path he showed (5).png
     

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  • भले दूर हूं, निकट भेज देता अपनापनआचार्य श्री विद्यासागर

    भारत को भारत बनाना हैं - आचार्य श्री विद्यासागर जीआचार्य श्री विद्यासागर

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    10 मई 2023 आचार्य श्री जी के दर्शनआचार्य श्री विद्यासागर

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    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    आचार्यश्री विद्यासागर जी की सूक्तियाँ (quotes)
  • निर्ममत्व

    गर्मी का समय था, अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद जी में ग्रीष्म प्रवास चल रहा था। वहाँ पर पर्याप्त कमरे न होने से एक ही कमरे में दो-दो, तीन-तीन मुनियों के आहार हो जाया करते थे। एक बड़ा हाल है, उसमें श्रावकगण पाँच-पाँच महाराजों को पड़गाहन करके आहार कराते थे। दैवयोग से, पुण्योदय से हमारे और आचार्य भगवंत के आहार एक ही श्रावक के यहाँ हो गये। आहारोपरांत गुरुदेव जाकर सामने कक्ष में बैठ गये बाहर रखे हुये दोनों कमण्डलु में से गुरुदेव के साथ श्रावकगण मेरा कमण्डलु ले गये। और मेरे पास गुरुदेव का कमण्डलु आ गया।

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    अनुभूत रास्ता

    समता

    पैर में तकलीफ बढ़ती ही जा रही थी, आचार्य महाराज कक्ष में आये और मुझसे पूछने लगे - क्यों महाराज कैसी है तकलीफ? मैंने कहा - बढ़ती ही जा रही है। आचार्य श्री बोले - इस रोग में कोई औषधि तो काम करती ही नहीं है, समता ही रखनी होगी। मूलाचार में साधु को सबसे बड़ी औषधि बताई है बताओ वह क्या है ? मैंने कहा - जी आचार्य श्री समता खुश होकर आचार्य श्री बोले - बहुत अच्छा ऐसी ही समता बनाए रखना। मैंने कहा - आपका आशीर्वाद रहा तो सब सहन हो जावेगा, आप आ जाते हैं तो साहस बढ़ जाता है। आचार्य श्री कहते हैं भैया और मैं क्

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संस्मरण मुनि श्री कुन्थुसागर जी
  • विचार सूत्र संकलन

  • ये कैसा पागल मनुष्य

    ओवर कान्फीडेन्स मात्र मनुष्य में ही पाया जाता है, जानवरों में नहीं। जीवन के लिए कान्फीडेन्स चाहिए ओवर कान्फीडेन्स नहीं। पाप करने में मनुष्य जितना आगे बढ़ जाता है, उतना जानवर नहीं, सबसे अधिक क्रोध करने में, सबसे अधिक अहंकार करने में, सबसे अधिक छल कपट करने में और सबसे अधिक लालच करने में मात्र मनुष्य ही आगे रहता है जानवर नहीं, मनुष्य क्या-क्या नहीं करता, सभी कुछ तो करता हैं, इस मनुष्य ने सबको सुखा दिया है और स्वयं ताजा रहना चाहता है, यह कैसा मनुष्य है जो हरी को समाप्त करके हरियाली को चाहता है, स्वय

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार

    हिंसा-कूरता-मारना-सताना उद्घण्डता है

    भारतीय इतिहास और दण्ड संहिता कहती है, हिंसा को रोकने के लिए दण्डित करना चाहिए, हिंसक को समाप्त करने के लिए नहीं। दण्ड देना बुरा नहीं लेकिन क्रूरता के साथ दण्ड नहीं देना चाहिए क्योंकि यदि अपराधी को क्रूरता के साथ दण्ड देंगे तो वह शायद कभी सुधरे परन्तु उसको विवेक के साथ दण्डित किया जाये तो सुधर भी सकता है, अहिंसक भी बन सकता है और जीव रक्षा का प्रण भी ले सकता है। दण्ड का विधान ही इसलिए किया गया है कि व्यक्ति उद्दण्डता न करे, उद्दण्डता के लिए दण्ड अनिवार्य है ताकि उद्धृण्डता रुक सके। हिंसा सबसे बड़ी

    संयम स्वर्ण महोत्सव
    संयम स्वर्ण महोत्सव
    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार

    जानवर प्रकृति का संतुलन बनाते : उनकी रक्षा करो

    इन छोटे-छोटे पशुपक्षियों में भी प्राण हैं, उनके पास भी ज्ञान है, सोचने-विचारने की शक्ति है। वे भी धर्म को समझ जाते हैं और अपने जीवन की उन्नति कर लेते हैं। हमारा इन तमाम पशु-पक्षियों की रक्षा करना परम कर्तव्य है, ये जानवर प्रकृति के संतुलन को बनाते हैं। यह धरती की हरियाली जानवरों की किस्मत से है, मनुष्य की किस्मत से नहीं। यदि ये जानवर समाप्त हो जायेंगे तो धरती की हरियाली भी समाप्त हो जायेगी और हरियाली के अभाव में यह मनुष्य जाति भी जिंदा नहीं रह सकती। अत: जानवरों की रक्षा करना ही हरियाली को जिन्दा

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    हिंसक व्यापार देश को बनाता अशान्त - लाचार
  • पाठ ९ जिनमार्ग पोषक 

    गुरु वह आध्यात्मिक शिल्पकार हैं, जो शिष्य को दीक्षा के साँचे में ढालकर न केवल एक मूर्ति का रूप देते हैं, बल्कि निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक संस्कारों के रंग-रोगन से भरकर उसके जीवन को श्रेष्ठ बनाते हुए उस पर अनुग्रह करते हैं। गुरु के द्वारा शिष्य में पोषित किए जाने वाले ऐसे ही अनमोल संस्कारों एवं शिक्षाओं से जुड़े कुछ प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है। आचार्यश्रीजी उच्चकोटी के साधक होने के साथ-साथ श्रमण परंपरा को संप्रवाहित करने के लिए शिष्यों को संग्रहित एवं अनुग्रहित करने व

    Vidyasagar.Guru
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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक

    पाठ १० जैसे के जैसे 

    कहते हैं कि कार्य के आरंभिक समय में उत्साह एवं विशुद्धि का होना इतना महत्त्वशाली नहीं, जितना कि कार्य की पूर्णतापर्यंत उसका अनवरत बना रहना। इसी तरह दीक्षा के समय वैराग्य, उत्साह एवं विशुद्धि का होना तो स्वाभाविक है। महत्त्व तो तब है, जब समाधिमरण पर्यंत तक वह अनवरत बनी रहे।आचार्य भगवन् श्री विद्यासागरजी मोक्षमार्ग के एक ऐसे महत्त्वशाली व्यक्तित्व हैं, जिनकी विशुद्धि, उत्साह, चेतना एवं आध्यात्मिकता दीक्षा के समय जैसी थी, आज ५० वर्ष पश्चात् भी वैसी की वैसी ही है। वह तब से अब तक 'जैसे के जैसे हैं। ग

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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक

    पाठ ७ उत्तम दस धर्मधारी 

    आचार्य भगवन् कहते हैं- 'आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और रत्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादिधर्मों से ही मानी जाती है।' मूल गुणों में पठित दस धर्मों का आचार्यश्रीजी पूर्ण निष्ठा एवं उत्कृष्टता से किस तरह परिपालन करते हैं, इससे जुड़े हुए कुछ प्रसंगों को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।     श्रमणत्व अंगरक्षक : दस धर्म    * अर्हत्वाणी * धम्मो वत्थु-सहावो ... .... जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ४७८॥   वस्तु के स्वभ

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    पाठ्यपुस्तक 3 - श्रमण परम्परा सम्प्रवाहक
  • कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971)

    कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971)   ‘कल्याणमंदिर स्तोत्र' आचार्य कुमुदचन्द्र, अपरनाम श्री सिद्धसेन दिवाकर द्वारा विरचित है। इसका पद्यानुवाद आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज.) में सन् १९७१ के वर्षायोग में किया। इस स्तोत्र को पार्श्वनाथ स्तोत्र भी कहते हैं। मूल स्तोत्र एवं अनुवाद दोनों ही वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध हैं।   इस कृति में उन कल्याणनिधि, उदार, अघनाशक तथा विश्वसार जिन-पद-नीरज को नमन किया गया है जो संसारवारिधि से स्व-पर का सन्तरण करने के लिए

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    कल्याण मंदिर स्तोत्र 2

    अंतर घटना

    उपलब्ध जैन-दर्शन साहित्य में प्राकृत-भाषा-निष्ठ साहित्य का बाहुल्य है। कारण यही है कि यह भाषा सरल, मधुर एवं ज्ञेय है। इसीलिए कुन्दकुन्द की लेखनी ने प्राकृत-भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना कर डाली। उन अनेक सारभूत ग्रंथों में अध्यात्म-शान्तरस से आप्लावित ग्रंथराज 'समयसार' है। इसमें सहज-शुद्ध तल की निरूपणा, अपनी चरम सीमा पर सोल्लास 'नृत्य करती हुई. पाठक को, जो साधक एवं अध्यात्म से रुचि रखता है, बुलाती हुई सी प्रतीत होती है। यथार्थ में, कुन्दकुन्द ने अपनी अनुभूतियों को 'समयसार' इस ग्रंथ के रूप में रूप

    Vidyasagar.Guru
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    कुन्दकुन्द का कुन्दन

    स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी

    स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी   ज्ञानावरणादिक कर्मों से, पूर्णरूप से मुक्त रहे। केवल संवेदन आदिक से युक्त, रहे, ना मुक्त रहे ॥ ज्ञानमूर्ति हैं परमातम हैं, अक्षय सुख के धाम बने। मन वच तन से नमन उन्हें हो, विमल बने ये परिणाम घने ॥१॥   बाह्यज्ञान से ग्राह्य रहा पर, जड़ का ग्राहक रहा नहीं। हेतु-फलों को क्रमशः धारे, आतम तो उपयोग धनी॥ ध्रौव्य आय औ व्यय वाला है, आदि मध्य औ अन्त बिना। परिचय अब तो अपना कर लो, कहते हमको सन्त जना ॥२॥   प्रमेयतादिक गुणधर्

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    स्वरूप संबोधन पच्चीसी
  • प्रवचनामृत 7 - त्यागवृत्ति

    त्याग के पहले जागृति परम अपेक्षणीय है। निजी सम्पत्ति की पहचान जब हो जाती है तब विषय-सामग्री निरर्थक लगती है और उसका त्याग सहज सरलता से हो जाता है।   यथाशक्ति त्याग को 'शक्तितस्त्याग' कहते हैं। शक्ति अनुलध्य यथाशक्ति अर्थात् शक्ति की सीमा को पार न करना और साथ ही अपनी शक्ति को नहीं छिपाना इसे यथाशक्ति कहते हैं और इस शक्ति के अनुरूप त्याग करना ही शक्तितस्त्याग कहा जाता है।   भारत में जितने भी देवों के उपासक हैं, चाहे वे वृषभ के उपासक हों, चाहे वे राम के उपासक हों अथवा बुद्ध के उ

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    विद्या वाणी

    सर्वोदयसार 21 - सन्मति मिले समर्थ

    कल्पवृक्ष से अर्थ क्या कामधेनु भी व्यर्थ। चिन्तामणि को भूल जा सन्मति मिले समर्थ।   अनन्तकाल से यह आत्मा अज्ञान दशा में सोई हुई आ रही है। यह जागे इसका उदय हो इसलिये इस सर्वोदय तीर्थ पर समय-समय पर कार्यक्रम आयोजित किये गये। संसारी प्राणी सांसारिक लिप्साओं की पूर्ति के लिये बहुत सारी चिन्तायें/कामनायें करता है पर सन्मति/सद्बुद्धि पाने की कामना नहीं करता। एक बार यह मिल जाये तो फिर किसी की आवश्यकता नहीं। आज तक इसे पर का ही परिचय प्राप्त हुआ है स्व का नहीं, अब हमें पर की बात नहीं करना,

    संयम स्वर्ण महोत्सव
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    विद्या वाणी

    सर्वोदयसार 22 - आत्मद्रष्टि ही अपना पथ

    इस संसार में बहुत सारे कठिन कार्य हैं किन्तु मान को नियंत्रण में रखना सबसे कठिन कार्य है। यह मान कषाय की ही परणति है कि हम अपनी मान्यता दूसरों पर थोपने का प्रयास करते हैं पर दूसरों की मान्यता हम स्वीकार करना नहीं चाहते। हम यह देखते रहते हैं कि हमारी मान्यता का समर्थन कौन-कौन कर रहा है। जिस प्रकार फूल को यदि पानी मिलता रहे तो वह खिला रहता है किन्तु पानी नहीं मिलने पर वह मुरझा जाता है ठीक इसी प्रकार हमारी प्रसन्नता दूसरों पर टिकी हुई है। परन्तु भगवान् कहते हैं कि अपने जीवन को दूसरों से नहीं अपने आ

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    विद्या वाणी
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